लुका-छिपी खेलता है
जाने मुझसे
कि इन आते-जाते पहाड़ों से
(न, पहाड़ नहीं, अरावली की छोटी पहाडियों से)
पर, हर बार, अब वह झांकता है-
पहाडियों के पार
तुम्हारी कलाएं,
दिखाता है, हर बार-
कभी मासूम, कभी गुम-सुम,
कभी शोखी, कभी हँसी
कभी मोहक, कभी मादक
कभी स्नेह, कभी दुलार
कभी रूठना, कभी तकरार
कभी लाड, कभी प्यार
बाराहों पहाडियों के बीच
तुम्हारे रंग
आते हैं, जाते हैं-
इतने पास,
कि बस
अब छुआ
कि तब छुआ
इतना पास,
कि महसूस होती है साँस
और तपिश दहकते होठों की|
पर तभी,
ऊँची पहाड़ी सड़क से
अजमेर जगमगाता है
और चाँद
छिटक कर
जा बैठता है –
दूर आसमान पर
-शायद दिल्ली के-
बस ठीक उसी क्षण
फोन का बजना
उधर से तुम्हारा विभोर हो कहना
– आज का चाँद बेहद खूबसूरत निकला है!