जब मुखातिब होंगे
हम तुम,
होंठो पे जमी बर्फ को
कैसे पार करेंगे लफ्ज़ तब?
बहुत समय से लफ्ज़ जमे हैं लब पे
तपते हुए लबों से अपने पिघला सको तो
पी सकोगे इन्हें
पर देह के कम्पन अनुनाद में
पुल टूट नहीं जायेंगे क्या?
थरथराते लब
क्या इतनी ही आसानी से
कह सकेंगे तब –
मुझे तुमसे प्यार है…
होगी दरकार आवाज़ की मौन को
या कि
मौन खुद ही आवाज़ बनेगा?
अगर सुनोगी मेरे सीने पे अपना सर रखकर
तुम अपना नाम
मेरी आती जाती साँसों में
ये तो झंझावत में न
बदल जायेंगी क्या?
तुम्हारी मादक देह गंध
रहने देगी ज़मीन पैरों तले क्या?
गिरने से कैसे बचाएंगी बाहें तुम्हारी?
क्या होगी उतनी ही तेज़ तुम्हारी सांसें भी?
उठाना गिरना वक्ष का कैसे सिमट पायेगा आँखों में?
हाथ में रखा हाथ कापेंगें नहीं क्या?
शिकायत
इनकार
इज़हार
मनुहार
रूठना
मनाना
लाज शर्म
मिलन विरह
पास दूर
सारे ये शब्द खो नहीं जायेंगे क्या
आवेशित हृदयों के स्पंदन में?
प्रथम प्रेम मिलन में होगा क्या?
इसी सब में
घिरा बैठा रहता हूँ
दिन रात आजकल…