नवम्बर 10, 2013

कल शाम चाँद देखा
वही,
कालिमा पर
रेखाओं की
सुनहली छटा बिखेरता|
प्याले सा चन्दा
तारों की सोहबत में
बिगड सा गया है
मुसकराता है,
मुझे मुँह चिढ़ाकर
मेरी खिड़की के पार
जब तकिये में सिर घुसा,
फिर सिर उठाकर
मैं देखता हूँ उसे
कहता है,
भंवे
टेढी करके
बाईं आँख दबाकर-
“मजनूँ कहीं के”

Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...
Posted in कविता, युगल, रचनाकार |
1 Comment »
अगस्त 8, 2011

बाईस नवम्बर उन्नीस सौ निन्यानवे का चाँद
अभी-अभी देखकर लौटा हूँ
शेरटन होटल के सामने से
दिन बुधवार
शाम के साढ़े सात बजे हैं।
अंतरिक्ष का भेद बताने वालों ने बताया था पहले से कि
यह चाँद अब तक दिखने वाले चाँदों में
सबसे बड़ा दिखेगा।
पूरा चाँद
एक थाल…नहीं,
एक परात बराबर
लगा कि मेरी दादी ने उसे
राख से माँज दिया हो।
मैंने अपनी दादी को नहीं देखा
मगर आज चाँद को देखकर लगा कि
दादी को देख लिया।
माँ कहती है कि
मेरे जन्म के तीन महीने बाद ही दादी गुजर गई।
लेकिन आज चाँद को देखते ही
वह सब याद आया जो दादियाँ सुनाती आयी हैं।
चाँद की सीमाओं में धान कूटती बुढ़िया
चूल्हे के पास से परथन के बराबर पड़े गुंथे आटे में
दाँत मारती चुहिया
सुना हुआ सब कुछ मुझे आज के चाँद में दिखा।
सुना हुआ न दिखता तो कितना विकृत और विद्रूप लगता
सुने हुए में कल्पना समाहित होती है।
आज का परात बराबर चाँद
मैंने बचपन में अपने गाँव की
बहन-बेटियों की शादी में देखा था
उसमें रखकर सब्जियाँ और पूरियाँ परोसते थे लोग
आज लगा कि उसी परात को दादी ने
राख से माँज दिया है।
यह बाईस नवम्बर उन्नीस सौ निन्यानवे का चाँद है
रोज से बड़ा और रोज से साफ।
{कृष्ण बिहारी}
Like this:
पसंद करें लोड हो रहा है...
Posted in कविता, कृष्ण बिहारी, रचनाकार, साहित्य |
Leave a Comment »