बहुत लड़ा
तेरी यादों का रौशन दिया
आँख में रात भर धंसती रहीं
सपनो की किरचें
हर पल करवटों का
रात सलवटों की गूंगी गवाह
बहुत रोये
बहुत माँगा
मगर…
रात
एक कतरा भी नींद का
तुमने लेने न दिया…
दिन को बुनता हूँ जो भी ,
हर रात उसका भरम तोड़ती रहो तुम
अपनी आदत में पिन्हा रहो तुम
मजबूर अपनी से रहेंगे हम!
(रजनीश)