तेरी ही उँगलियों के निशां चस्पा हैं
हरेक ईंट में सिहरन है अभी भी
तेरे छूने की…
तेरी ही रिहायश से मकां घर हुआ
दिल तो वैसे मेरा
कुछ क़तरा खूँ ‘औ
कुछ वज़न ग़ोश्त
ही ठहरा
तेरे रहने फकत ने इसे इस काबिल किया
कायनात समेटे फिरता हूँ मैं
कई तूफ़ान
कई समंदर
कई साहिल
बस एक तेरे रहने से
कौन समझेगा तेरे सिवा?