कंठस्थ हो गईं ऋचाएं
भौतिकी से आध्यात्म तक
ज्यामिती से इतिहास तक
अब तक मानव ने पाया था जो ज्ञान!
मस्तिष्क के तंतुओं का जाल
शरीर के ऊतकों का स्थान
पाकर यह सब ज्ञान
दिख पड़ता है कान्तिमान
गर्व से दपदपाता, जब-तब होता इस पर मान!
पर छटपटाया कई बरस
ज्ञान की पोथियों से शिथिल मन
न मिली कोई राह
ना बन सका कोई प्रवाह
तब एक दिन सहसा भरभरा कर गिरा वितान!
बात बस इतनी सी थी
फंतासी में सपने सी थी,
जब डम्बलडोर ने कहा भर
कहीं से सपने में आकर
सिर्फ फैसले हमारे, कराते हमारी पहचान!