जनवरी 15, 2014
आलम-ए-दिल पे कोई फर्क कहाँ?
दूर हो तुम
चाहे बहुत करीब मेरे
पास बुला के भी मजबूर कहने से
कि
दिल में बसते हैं कितने अरमान मेरे…
कहना तो है बहुत कुछ…
मगर कहें कैसे?
लफ्ज़ आते आते लब तक
कही जम जाते हैं
उठते तो हैं तूफान कितने
दिल से,
बस उठते हैं और कहीं थम जाते हैं…
दिल का तो क्या?
चाहे बस कि हरदम
बस इक तुम्हारी ही याद में गुम हो…
बहुत क्या कहना?…
बहुत क्या सुनना?
बस फकत जान लो इतना के…
मेरी आखिरी ख्वाहिश तुम हो…

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नवम्बर 30, 2013
हर रात 
जलता हूँ
गलता हूँ
ढलता हूँ
जिस भी रूप में
तेरी नीली लौ जलाती है
जिस भी रंग में तू मुझे ढालती है
हर रोज़…
हर रात…
हर बार तू मुझे एक नया रंग देती है
कितनी और रात
बता
कितनी और रात जलना है
कितनी और रात जलना है मुझे
गलना और
ढलना है मुझे
कितने और रंग बदलना है मुझे
बता कितनी और बार पिघलना है मुझे
एक आखिरी बार तुझमे पिघलने से पहले
बस हरदम के लिए तेरे रंग में ढलने से पहले
कितनी और बार?

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