मृत्युंजय कोई नहीं है धरा पर,
कभी भी नहीं हुआ,
कभी हो नहीं सकता|
जो जन्मा है
वह मरेगा अवश्य|
जन्म और मृत्यु
दो मुख हैं एक ही अटल सत्य के, एक के बिना दूसरा नहीं|
इसे चाहे लम्बाई में समझ लें तो ये दो सिरे हैं और चाहे गोलाई में मान लें तो एक दूजे में गुथी हुयी दो परतें हैं|
एक कथा कहता हूँ तुमसे| महाभारत की है|
कर्ण की वीरता के सच का बोध अर्जुन को करा कर कृष्ण मरणासन्न कर्ण के पास ब्राह्मण वेष में पहुँच दान माँग और मनचाहा दान पाकर अर्जुन को कर्ण की दानवीरता का भव्य प्रदर्शन भी दिखा चुके थे|
कर्ण के सामने अपने असली रूप में आकर कृष्ण ने कर्ण से उसकी अंतिम इच्छा पूछी|
मरणासन्न पर चेतन कर्ण ने कृष्ण से कहा,”मेरी मृत देह का संस्कार अदग्धा भूमि पर किया जाए|
कृष्ण बोल उठे,”ऐसा ही होगा”|
कथा कहती है कि कर्ण के मरणोपरांत कृष्ण उसके पार्थिव शरीर को लेकर सारे संसार में घूम आए पर हर जगह, धरती ने उन्हें एक ही जवाब दिया,
“अदग्धा भूमि! वह कैसे मिल सकती है? आप तो ज्ञानी हैं, आपने कैसे ऐसा वचन दे दिया? आरम्भ से ही मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते आए हैं और जब तक जीवन है तब तक वे मृत्यु के शिकार होते ही रहेंगे| अमर कोई नहीं है| ऐसे में अदग्धा स्थल के बारे में कल्पना करना भी असंभव है|”
कहते हैं, कृष्ण ने अपनी हथेली पर कर्ण का दाह संस्कार किया|
कृष्ण–कर्ण कथा के द्वारा धरती, और यहाँ मनुष्य से सम्बंधित जन्म और मृत्यु के चक्र को सुपरिभाषित किया गया है|
मनुष्य संत हो या शैतान, मृत्यु से परे नहीं है|
मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता|
पर मृत्यु के भय पर उसे विजय प्राप्त करनी होती है…करनी ही होती है|
इस सच के बोध को कभी धूमिल न होने दें| यही सच जीवन में बड़े सच की ओर यात्रा करवा पाने में सहायक सिद्ध होता है|