विजय दिवस था कल
एक बूढी लाठी के आगे
नतमस्तक हुए शाह–वजीर
अचरज से देख रहे थे
कबाड़े से निकल आई
गाँधी टोपियों का कमाल
सिर पर रखते ही
हरीशचन्द्र बन रहे थे लोग
जिन्हें लेख का शीर्षक भी पता नही
टीकाकार बन गए थे कौवे
कोयलें चुप थीं।
उस बड़े मैदान में
सुनहरे कल के सपने
प्यासों के आगे
बिसलेरी बोतलों के समान
उछाले जा रहे थे,
परंतु जो सपना उठा लाया
वह रात भर सो न सका
उसे याद आ गया था
माटी बने पुल की नींव से
कमीशन खोद कर निकालना है,
उसने भी माइक पर
ईमान की कसम दोहराई थी
रोज गीता–कुरआन पर
हाथ रख कर,
झूठी गवाहियाँ देने वाला दिल
व्याकुल रहता कब तक?
वह उठा और
माटी के पुल के रास्ते चल पडा
उस समय तक सभी सियार
जश्न का खुमार उतरने के बाद
शेर की खाल ओढ़ रहे थे,
रोज़मर्रा समान
निजी लाकरों और स्विस बैंकों के
दफ्तर भी खुल चुके थे।
(रफत आलम)