हिंदी साहित्य में दलित जीवन के वर्णन को प्रमुखता से जगह दिलवाने वाले, जूठन जैसी अति-प्रसिद्द आत्मकथा के लेखक, वर्तमान हिंदी साहित्य के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की स्मृति में कर्मकांड पर प्रहार करती उनकी एक सशक्तत कविता
जब भी चाहा छूना
मंदिर के गर्भ-गृह में
किसी पत्थर को
या उकेरे गये भित्ति-चित्रों कोहर बार कसमसाया हथौडे़ का एहसास
हथेली में
जाग उठी उंगलियों के उद्गम पर उभरी गांठेंजब भी नहाने गये गंगा
हर की पौड़ी
हर बार लगा जैसे लगा रहे हैं डुबकी
बरसाती नाले में
जहाँ तेज धारा के नीचे
रेत नहीं
रपटीले पत्थर हैं
जो पाँव टिकने नहीं देतेमुश्किल होता है
टिके रहना धारा के विरुद्ध
जैसे खड़े रहना दहकते अंगारों परपाँव तले आ जाती हैं
मुर्दों की हडि्डयाँ
जो बिखरी पड़ी हैं पत्थरों के इर्द-गिर्द
गहरे तल मेंये हडि्डयां जो लड़ी थीं कभी
हवा और भाषा से
संस्कारों और व्यवहारों से
और, फिर एक दिन बहा दी गयी गंगा में
पंडे की अस्पष्ट बुदबुदाहट के साथ
(कुछ लोग इस बुदबुदाहट को संस्कृत कहते हैं)ये अस्थियाँ धारा के नीचे लेटे-लेटे
सहलाती हैं तलवों को
खौफनाक तरीके सेइसलिये तय कर लिया है मैंने
नहीं नहाऊंगा ऐसी किसी गंगा में
जहां पंडे की गिद्ध-नजरें गड़ी हों
अस्थियों के बीच रखे सिक्कों
और दक्षिणा के रुपयों पर
विसर्जन से पहले ही झपट्टा मारने के लिए बाज की तरह !
(ओमप्रकाश वाल्मीकि)