हर रोज़ मुझे अकेला छोड़ जाती है तू
तेरे जाने के बाद भी बहुत देर तलक
मैं अंधेरों में जुगनू तलाशा करता हूँ
कुछ अहसास तेरे होने का
आ आ के टटोलता रहता हूँ…
गाल पे सूखे हुए आंसुओं के निशान की तरह
मेरी उँगलियों के निशान इस की शिनाख्त करते हैं
मैं हर रोज़ सोचता हूँ कि इस
सफ़ेद कोरे कागज़ पे
तेरी नीली हंसी टांक दूँ
तेरी आवाज़ पिरो दूँ इसमें
हर शाम तेरे आने तक फिर सुनूँ
तेरी मखमली आवाज़ इंतज़ार को कुछ
रंगीन कर दे शायद…
वरना इस अँधेरे में
जुगनू की चमक क्या रंग देगी…
कुछ छोड़ जाया कर इस मोड़ पे हर रोज़
कुछ गर्म साँसे उतार कर अपनी
कुछ अपनी महक…
कुछ उजाले अपनी आँखों के
मैं हर दफा कुछ बहाने से इधर आता हूँ
पूछ जाता हूँ कि तुम आयी तो नहीं…
तुम आयी थीं क्या?
(रजनीश)