मुस्कान तुम्हारी हौले से छू जाती है
मन के तार झंकृत कर के जैसे
मौसमी बयार पत्तों की वीणा बजाये
और चली जाए उन्हें कम्पित छोड़ के
ऐसे ही चली जाती हो तुम
मुझे हर सिरे से बजता छोड़ के
सुलगता और तपता छोड़ के…
कितने प्रश्न तुम तक मुड़ते हैं
कितने स्वप्न तुमसे जुड़ते हैं
हर प्रश्न के…
हर स्वप्न के
अंतिम सिरे…
नहीं नहीं पहले सिरे पे तुम
मध्य तक आते आते…
नेह-दग्ध छोड़ जाती हो तुम
बहुत आतप्त करके मुझे छोड़ जाती हो तुम
कभी जब इंच भर दूर रहता है मधु-कोष मुझसे
मेरे दरकते हुए होंठ जब छूने को होते हैं
हर बार वापिस फेर देती हो क्यूँ?
मुझे यूँ छोड़ देती हो क्यूँ?