कैसे,
आखिर कैसे
तुम जान जाती थी
कि मैंने साहस जुटा लिया है
तुमसे प्रणय निवेदन का
दिल की बातें कहने का,
सैकड़ों बार की कोशिश के बाद
जब जब मैंने हिम्मत की कि कह दूँ
‘मुझे तुमसे प्यार है’
तुम ने आग भर ली अपनी दृष्टि में मेरे लिए
वे सारे निशान जो कहते थे तुम्ही मेरी मंजिल हो
अपने हाथों मिटा दिए तुमने
कैसे जान गई थीं तुम कि
मैंने स्वीकार कर लिया है
कि तुम मेरे लिए क्षितिज का सूर्य हो
मैं पा नहीं सकता तुम्हे
और तब जब मैं हार मानने वाला ही था
तुमने आँखों में प्यार भर
हंस कर बस ठीक तभी तुम ने कह दिया था
“तुम कितने प्यारे हो! मुझे तुम्हारा साथ बहुत पसंद है”
कैसे आखिर कैसे जान जाती थी तुम?
जब आज तुम मेरी नहीं
तुम को पाने की कोई आशा नहीं
सच कहूँ तो अब कोई हसरत भी नहीं
क्यूँ तुम ने ये कह दिया
“तुमने कभी कहा होता”!!
कैसे आखिर कैसे आज फिर तुम ने ये जान लिया
कि अब इस पौधे की जड़े मर चुकी हैं
अब ये हरा नहीं होगा