मौन नहीं हुआ करती है देह की भाषा
बहुत मुखरित हुआ करती है देह की भाषा
व्यक्त हो जाया करती है देह की भाषा…
उठती गिरती साँसों में
कंपकपाते होठों में
हृदयों के स्पंदन में
बोली की लरजन में
कांपती पिंडलियों में
आरक्त हुए कानो में
धमनियों के रक्त दबाव में
आखों के झुकने में
संवेदित होते अंगो में
पास आ पढ़ लो
मेरी देह की भाषा को
तुम मौन भी रहो,
कोमल हाथों की छुअन से
हौले से सहला कर
देह तुम्हारी समझ लेगी इसे…
रख दो इसे बस पास इसके
स्वयं समाहित हो जाएँगी ये एक दूसरे में
आओ आज समा जाने दो मुझ को तुम में…
(रजनीश)
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