याद नहीं है?
तुमने ही तो कभी कहा था
तुमसे बेहतर मेरी याद को
कौन संभालेगा?
एक तुम ही तो हो जिससे
तुम्हारी जान तक मैं माँग सकती हूँ
यह अधिकार भी दे दो न कि अब मैं
तुम्हे अपनी यादें दे जाऊँ।
सुनकर लगा था
क्या मैं सचमुच इतना बड़ा हो गया
जो कुछ दे सके…कुछ ले सके।
खुशियाँ जैसे बाँध तोड़ दें…
पूछा मैंने – यह क्या माँगा तुमने?
तुम कुछ और माँगते
जिसको पूरा कर पाता तत्क्षण मुश्किल होता
प्रथम प्यार के पहले चुंबन की जैसे
अतिरिक्त खुशी हो
खुश होकर
तुम्हारी हथेली पर धर दिया हस्ताक्षर मैंने
जैसे एकलव्य ने मुस्कुराकर
अँगूठा नहीं ज़िंदगी दे दी थी
किसे मालूम था
कोरे कागज़ सी तुम्हारी वह हथेली
मुझे मेरे भीतर ही गिरवी रखकर भूल जाने की
इबारत से खुदी थी
जिस पर रसीदी टिकट भी थे…
तब से जिस्म ही तो बाकी रह गया है सुलगने को
धुँआ-धुँआ होने को
अपनी ही आत्मा पर
संतरी की-सी निगाह रखने को।
कफी वक्त्त गुज़र गया अफीम के नशे में
लेकिन अब-
पहरेदारी करते-करते मन ऊब गया है
सहते रहने की भी तो
कोई एक अवधि होती है।
{कृष्ण बिहारी}